ब्रह्म और पंचतत्वों का सामंजस्य: एक विस्तृत विवेचन लेखक शिवबोध अविकल्प जी


 

यह लेख ब्रह्म और पंचतत्वों के बीच के गहरे संबंध की व्याख्या करता है, यह दर्शाता है कि कैसे एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में प्रकट होता है और पंचतत्वों के माध्यम से कार्य करता है। जो व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है, उसकी भेद दृष्टि समाप्त हो जाती है।


ब्रह्म की एकता और बहुलता:


वेदों में कहा गया है, "यः इमान् लोकान् ईशनीभिः ईशते सः रुद्रः एकः हि। द्वितीयाय न तस्थुः हे जनाः। प्रत्यङ् तिष्ठति। विश्वा भुवनानि संसृज्य गोपाः भूत्वा अन्तकाले सञ्चुकोच॥ " अर्थात् रुजो जगतों की रक्षा तथा उन पर शासन करता है वह, रुद्र, वास्तव में केवल एक ही है। उसके समीप कोई नहीं है जो उसे दूसरा बना सके। वह सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। सभी जगतों का सृजन और पालन करने के बाद अन्त में वह अपने आप में इसे निवर्तित कर लेता है । फिर भी, "एकम सत् विप्रा बहुधा वदन्ति"  के अनुसार, वही ब्रह्म अपने कार्यों के भेद से अनेक रूपों में प्रकट होता है। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना है, उसी प्रकार ब्रह्म भी पंचब्रह्म के रूप में प्रकट होता है: गणपति, सूर्य, विष्णु, शिव और शक्ति।


यहाँ 'शक्ति' को केवल दुर्गा, काली आदि देवियों तक सीमित नहीं समझना चाहिए। शक्ति अनंत है, उसके अनगिनत रूप हैं, और ये सभी नाम कार्यों के अनुसार हैं।


पंचब्रह्म और पंचतत्व:


सूर्य (आकाश तत्व): जब ब्रह्म ब्रह्मांडों की रचना करता है, तो वह सूर्य कहलाता है। विज्ञान भी मानता है कि सूर्य से ही पृथ्वी और अन्य ग्रह-नक्षत्रों की उत्पत्ति हुई है। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा और चक्षु कहा गया है, क्योंकि उसकी कृपा से ही हम दृश्य और अदृश्य जगत को देख पाते हैं। सूर्य जगत का पोषण करता है और आकाश तत्व का अधिष्ठाता है।


गणपति (जल तत्व): ब्रह्म गणों (देवगणों, पितृगणों, ऋषिगणों) के स्वामी के रूप में गणेश कहलाता है। सृष्टि के आरंभ में केवल जल तत्व था, और गणेश उसके अधिष्ठाता हैं। पृथ्वी का अधिकांश भाग जल से ढका है (लगभग 71%), और मानव शरीर में भी जल की मात्रा 70% से अधिक है। जल जीवन का आधार है।


विष्णु (वायु तत्व): जब ब्रह्म सृष्टि का पालन करता है, तो वह विष्णु कहलाता है। विष्णु अर्थात् जो विश्व के अणु-अणु में व्याप्त है। विष्णु वायु तत्व के अधिष्ठाता हैं। वायु के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। प्राणियों में प्राण रूप में वायु ही प्रवाहित होता है।


शिव (पृथ्वी तत्व): शिव तत्व की व्याख्या करना अत्यंत कठिन है। ब्रह्म निर्गुण, निराकार रूप में 'शव' रूप में निष्क्रिय रहता है। जब उसमें शक्ति का संचार होता है, तभी वह 'शिव' बनता है। शिव तत्व में शिवतत्व और शक्तितत्व दोनों शामिल हैं। परमशिव प्रकाशविमर्शमय है; प्रकाश रूप शिवतत्व है और विमर्श रूप शक्तितत्व। यही विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार के रूप में प्रकट होता है। शक्ति के बिना शिव को अपने प्रकाश का ज्ञान नहीं होता। शिव पृथ्वी तत्व के अधिष्ठाता हैं। पृथ्वी तत्व का अर्थ है आवास स्थल। ब्रह्मा से लेकर तृण तक सभी प्राणियों का आवास पृथ्वी पर ही है। प्राणियों का शरीर भी पृथ्वी तत्व है, जिसमें जीवात्मा निवास करती है।


शक्ति (अग्नि तत्व): शक्ति तत्व की व्याख्या ब्रह्मादि देवताओं के लिए भी संभव नहीं है। जब ब्रह्म निष्क्रिय होता है, तो वह शव रूप में होता है, लेकिन शक्ति के सहयोग से ही वह क्रियाशील होता है और विभिन्न रूप धारण करता है। शक्ति ही ब्रह्म को सूर्य, गणपति, विष्णु और शिव के रूप में कार्य करने की क्षमता प्रदान करती है। शक्ति के बिना ये सभी निष्क्रिय हैं। इसलिए शक्ति को 'परातत्व' कहा गया है, जो सबसे परे है। शक्ति के अभाव में जीवन और सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती। शक्ति अग्नि तत्व की अधिष्ठात्री है। शरीर की अग्नि के मंद पड़ने से शरीर की क्रियाशीलता मंद पड़ जाती है, और अग्नि के बुझने से शरीर नष्ट हो जाता है। अग्नि तत्व के कारण ही देवताओं को हविष्य प्राप्त होता है और यज्ञ आदि धार्मिक कार्य संपन्न होते हैं।


निष्कर्ष:


शक्ति तत्व इतना विशाल है कि उसका वर्णन करना असंभव है। जो इस रहस्य को समझ लेता है, उसे कुछ और समझने की आवश्यकता नहीं रहती, और उसकी भेद दृष्टि हमेशा के लिए मिट जाती है। संक्षेप में, ब्रह्म एक ही है, लेकिन वह पंचतत्वों के माध्यम से विभिन्न रूपों में प्रकट होकर सृष्टि का संचालन करता है। शक्ति ही वह मूलभूत तत्व है जो ब्रह्म को क्रियाशील बनाता है और सृष्टि के सभी कार्यों को संभव करता है।

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